Sunday, September 28, 2014

Devi Sukta देवी सूक्त


Devi Sukta 
Devi Sukta is in Sanskrit. Any Sukta means a collection of Vaidik stanzas. But when these stanzas are from Vedas, Such collection becomes Mantra. Devi Sukta or Vak Sukta or Aatma sukta is from Rugved's 125th Sukta. This Sukta is created by Vak, the daughter of Ambhrun Rushi. She was enlightened by Brahma-Sakshatkar. She is expressing the Oneness of Brahma everywhere in the universe. There is presence of Brahma in every living as well as every substance and everywhere the Brahma and nothing else than that. Thus the oneness of the Creator and Creation is expressed in this Devi Sukta by Vak Devi. This Vak Devi is the Pragdnya (high intelligence) of the enlightened people. Vak Devi is saying that I am Brahma-Swarupa and I express myself as Rudra, Vasu, Aaditya and VishvaDev. I am Mitra and Varun. I am Indra and Aghani. I am care taker and feeder of both of the Ashavini Kumar is because of me. I destroy enemies, remove the bad virtues, bad wills; I am the source of all happiness. Som in Yagnya, Chandrama and Mind or Shiva’s presence is because of me. I represent Tvashta, Pusha and Bhaga. The host of the Yagnya who gives Havishya (offerings given to Gods in the Yagnya) to Gods is blessed by me. I am the Goddess of this Universe. I give happiness and money to the devotees. I am the leader of those for those for whom Yagnyas are performed. I express myself in every creature, animal. Everywhere and anywhere anything is done, is done for me only and by me only.
देवी सूक्त
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्र्चराम्यहमादित्यैरुत विश्र्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्र्विनोभा ॥ १ ॥
अहं सोममाहनसं बिभर्म्यहं त्वष्टारमुत पूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ॥ २ ॥
अहं राष्ट्री संगमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ॥ ३ ॥
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणितियईं श्रृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ॥ ४ ॥
अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः।
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ॥ ५ ॥
अहं रुद्राय धनुरा तनोमि ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेश ॥ ६ ॥
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणोप स्पृशामि ॥ ७ ॥
अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्र्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ॥ ८ ॥ 
॥ इति देवी सूक्त ॥
देवी सूक्त हिंदी अनुवाद 
यह अनुवाद कल्याण प्रकाशनके वेद-कथा अंकसे अंशतः आभार सहित लिया गया हैं ।
भगवती पराम्बाके अर्चन-पूजनमे यह देवी सूक्त बहुत महत्व रखता हैं । ऋगवेदके दशम मण्डलका १२५वॉ " वाक्-सूक्त है । इसे आत्मसूक्त भी कहते हैं । इसमें अम्भृण ऋषिकी पुत्री वाक् उसे ब्रह्मसाक्षात्कारसे आत्मज्ञान प्राप्त होनेके कारण सर्वात्मदृष्टिको अभिव्यक्त कर रही हैं । ब्रह्मविद्की वाणी ब्रह्मसे तादात्म्यापन्न होकर अपने-आपको ही सर्वात्माके रुपमें वर्णन कर रही हैं । ये ब्रह्मस्वरुपा वाग्देवी ब्रह्मानुभवी जीवन्मुक्त महापुरुषकी ब्रह्ममयी प्रज्ञा ही हैं । इस सूक्तमें प्रतिपाद्य-प्रतिपादकका एकात्म्य सम्बन्ध दर्शाया गया है । 
ब्रह्मस्वरुपा मैं रुद्र, वसु, आदित्य और विश्र्वदेवताके रुपमें विचरण करती हूँ, अर्थात् मैं ही उन सभी रुपोमें भासमान हो रही हूँ । मैं ही ब्रह्मरुपसे मित्र और वरुण दोनोंको धारण करती हूँ । मैं ही इन्द्र और अग्निका आधार हूँ । मैं ही दोनो अश्विनीकुमारोंका धारण-पोषण करती हूँ ।
मैं ही शत्रुनाशक, कामादि दोष-निवर्तक, परमाल्हाददायी, यज्ञगत सोम, चन्द्रमा, मन अथवा शिवका भरण पोषण करती हूँ । मैं ही त्वष्टा, पूषा और भगको भी धारण करती हूँ । जो यजमान यज्ञमें सोमाभिषवके द्वारा देवताओंको तृप्त करनेके लिये हाथमें हविष्य लेकर हवन करता है, उसे लोक-परलोकमें सुखकारी फल देनेवाली मैं ही हूँ ।
मैं ही राष्ट्री अर्थात् सम्पूर्ण जगत् की ईश्र्वरी हूँ । मैं उपासकोंको उनके अभीष्ट वसु-धन प्राप्त करानेवाली हूँ ।
जिज्ञासुओंके साक्षात् कर्तव्य परब्रह्मको अपनी आत्माके रुपमें मैंने अनुभव कर लिया है । जिनके लिये यज्ञ किये जाते हैं, उनमें मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ । सम्पूर्ण प्रपञ्चके रुपमें मैं ही अनेक-सी होकर विराजमान हूँ । सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरमें जीवनरुपमें मैं अपने-आपको ही प्रविष्ट कर रही हूँ । भिन्नभिन्न देश, काल, वस्तु और व्यक्तियोंमें जो कुछ हो रहा है, किया जा रहा है, वह सब मुझमें मेरे लिये ही किया जा रहा है । सम्पूर्ण विश्वके रुपमें अवस्थित होनेके कारण जो कोई जो कुछ भी करता है, वह सब मैं ही हूँ ।
जो कोई भोग भोगता है, वह मुझ भोक्त्रीकी शक्तिसे ही भोगता है । जो देखता है, जो श्र्वासोच्छ्वासरुप व्यापार करता है और जो कही हुई सुनता है, वह भी मुझसे ही है । जो इस प्रकार अन्तर्यामिरुपसे स्थित मुझे नहीं जानते, वे अज्ञानी दीन, हीन, क्षीण हो जाते हैं । मेरे प्यारे सखा ! मेरी बात सुनो-- मैं तुम्हारे लिये उस ब्रह्मात्मक वस्तुका उपदेश करती हूँ, जो श्रद्धा-साधनसे उपलब्ध होती है ।
मैं स्वयं ही ब्रह्मात्मक वस्तुका उपदेश करती हूँ । देवताओं और मनुष्योंने भी इसीका सेवन किया है । मैं स्वयं ब्रह्मा हूँ । मैं जिसकी रक्षा करना चाहती हूँ, उसे सर्वश्रेष्ठ बना देती हूँ, मैं चाहूँ तो उसे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा बना दूँ और उसे बृहस्पतिके समान सुमेधा बना दूँ । मैं स्वयं अपने स्वरुप ब्रह्मभिन्न आत्माका गान कर रही हूँ ।
मैं ही ब्रह्मज्ञानियोंके द्वेषी हिंसारत त्रिपुरवासी त्रिगुणाभिमानी अहंकारी असुरका वध करनेके लिये संहारकारी रुद्रके धनुषपर ज्या (प्रत्यञ्चा) चढाती हूँ । मैं ही अपने जिज्ञासु स्तोताओंके विरोधी शत्रुओंके साथ संग्राम करके उन्हें पराजित करती हूँ । मैं ही द्युलोक और पृथिवीमें अन्तर्यामिरुपसे प्रविष्ट हूँ ।
इस विश्वके शिरोभागपर विराजमान द्युलोक अथवा आदित्यरुप पिताका प्रसव मैं ही करती रहती हूँ । उस कारणमें ही तन्तुओंमें पटके समान आकाशादि सम्पूर्ण कार्य दीख रहा है । दिव्य कारण-वारिरुप समुद्र, जिसमें सम्पूर्ण प्राणियों एवं पदार्थोंका उदय-विलय होता रहता है, वह ब्रह्मचैतन्य ही मेरा निवासस्थान है । यही कारण है कि मैं सम्पूर्ण भूतोंमें अनुप्रविष्ट होकर रहती हूँ और अपने कारणभूत मायात्मक स्वशरीरसे सम्पूर्ण दृश्य कार्यका स्पर्श करती हूँ ।
जैसे वायु किसी दूसरेसे प्रेरित न होनेपर भी स्वयं प्रवाहित होता है, उसी प्रकार मैं ही किसी दूसरेके द्वारा प्रेरित और अधिष्ठित न होनेपर भी स्वयं ही कारणरुपसे सम्पूर्ण भूतरुप कार्योंका आरम्भ करती हूँ । मैं आकाशसे भी परे हूँ और इस पृथ्वीसे भी । अभिप्राय यह है कि मैं सम्पूर्ण विकारोंसे परे, असङ्ग, उदासीन, कूटस्थ ब्रह्मचैतन्य हूँ । अपनी महिमासे सम्पूर्ण जगत् के रुपमें मैं ही बरत रही हूँ, रह रही हूँ ।   
Devi Sukta 
देवी सूक्त


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